पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१९४

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भाव मृत व्यक्ति या नष्ट वस्तु के संबंध में कभी कभी संताप की ऐसी प्रणाली स्थापित हो जाती है कि हम समय समय पर उसके लिये आँसू बहाया करते हैं, ठंढी साँसे लिया करते हैं । अपने मित्र के साथ बैठकर जिस स्थान पर हुम बातचीत या हँसी-ठट्ठा किया करते थे, मित्र के न रहने पर उस स्थान से होकर जब कभी हम जा निकलते हैं, चित्त की दशा कुछ और ही हो जाया करती है। इस दशा का दौरा कुछ लोगों के जीवन भर में हुआ करता है। इसी प्रकार जिसका ‘भय' मन में समा जाता है और स्थान कर लेता है उसकी आशंका बराबर बनी रहती है । भय के संचारियों में ‘शंका' भी रखी गई है और उसका अर्थ 'अनर्थ का तर्कण’१ कहा गया है। पर तर्कण बुद्धि का व्यापार है। भाव-प्रणाली या भावकोश के प्रसंग में कहा जा चुका है कि बुद्धि की सहायता का अवकाश किसी एक भाव के प्रतीति-काल में वैसा नहीं रहता जैसा उस भाव की स्थायी दशा में रहता है । भय की तीव्र अनुभूति के साथ तो अनर्थ का चित्र ही एकबारगी मन के सामने आ जायगा, तर्कण का अवकाश कहाँ रहेगा ? अतः ‘शंका' यदि केवल कल्पना के रूप में है ( जैसे वह कहीं आता न हो ) तो उसे 'भाव' का संचारी समझिए और यदि तर्कण के रूप में है ( जैसे यदि वहाँ जाकर छिपते हैं तो भी उसके मित्र वहाँ कई एक हैं, उसे पता लग जायगा ) तो उसे भाव की स्थायी दशा का संचारी समझिए। अब रहे हास और आश्चर्य जिनकी स्थायी दशाएँ इतनी व्यक्त नहीं हैं कि उनके अलग नाम रखे जायें। जिसकी बेढंगी । [परौर्यात्मदोषाचैः शङ्कानर्थस्यतर्कणम् ।। –साहित्यदर्पया, तृतीय परिच्छेद, १६१]