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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा इन उदाहरणों में मुल में रति भाव व्यंजित है। यह ऊपर कह आए हैं कि धारणा, बुद्धि आदि के ये व्यापार 'भाव' की स्थायी दशा में ही होते हैं, भावदशा में नहीं । जैसे, यदि उक्त चारों वृत्तियाँ संचारी होकर आएँगी तो क्रोध की भावदशा में नहीं, ‘बैर' नामक उसकी स्थायों दशा में ही आएँगी । अनिष्टकारी के संबंध में यदि क्रोध स्थायी दशा को प्राप्त होगा तो समय समय पर उसके द्वारा किए हुए अनिष्ट का स्मरण, यह उसी का काम है और किसी का नहीं इस प्रकार का निश्चय, वह हाथ में नहीं आ रहा है इसकी चिंता, वह कहीं भाग गया या यहीं छिपा हुआ है इस प्रकार का वितर्क हुआ करेगा। ‘शंका तो भय का ही वितर्क-प्रधान रूप हैं जो आलंबन के दूरस्थ होने पर प्रकट होता है। इसमें वैग नहीं होता और न आलंबन उतना स्फुट होता हैं। इसका प्रादुर्भाव या तो स्वतंत्र रूप में होता है अथवा भय की स्थायी दशा में ; भावदशा में नहीं होता जब कि अनिष्टकारी या अनिष्ट बिलकुल पास आया रहता है। भूषण .में ‘शंका' के बहुत से उदाहरण मिलते हैं, जैसे| (क) बीजापूर, गोलकुंडा, आगरा, दिल के कोट गाजे बाजे रोल दरवाजे उघरत हैं। | [ भूषणग्नथावली, शिवाबावनी, ३० ।] (ख) चौंकि चौंकि चकता केइत चहुँघा ते यारी, | लेत रहौ खबर कहाँ लौ सिवराज है । [वही, छंद ३४ ।] ‘वितर्क' और 'शंका' में भेद यह है कि वितर्क में अनुमान का व्यभिचार इष्ट और अनिष्ट दोनों पक्षों में बारी बारी से हो सकता है, पर ‘शंका में ‘भय' के लेश के कारण अनुमान अनिष्ट पक्ष में ही जाया करता है। वाल्मीकिजी ने एक ही प्रसंग में