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रस-मीमांसा

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२३२ बस-मीमांसा ध्यान ही नहीं देता। जड़ के प्रति अनन्य ‘रति भाव के कारण और ‘भावों के हिसाब से वह मानों स्वय जड़त्व को प्राप्त रहता हैं। किसी की दुयनीय दशा देख सुनकर दया न करना कटोरहृदयता है। किसी की दशा दयनीय कर देने में अंतःकरण से प्रवृत्त होना निर्दयता हैं । क्रोध द्वारा प्रेरित कर्मों के समय ही यह मानसिक अवस्था देखी जाती है। किसी अन्य इच्छा या संकल्प द्वारा प्रेरित कर्म दूसरे के देखने में निर्दय प्रतीत हो सकते हैं पर निर्दयता वहाँ कर्ता के अंत:करण में नहीं रहती। अपना काम लेते समय उसके करने में किसी अधीन या सेवक को जो घोर कष्ट हो रहा हैं उसका कुछ ख्याल न करना दूसरों के देखने में निर्दयत! ही है। पर इस प्रकार की मानसिक अवस्था का विचार स्वार्थपरता आदि के साथ शील में ही हो सकता है, भाव के संचारियों ने नहीं । जिस मानसिक अवस्था’ का अस्तित्व अपनी प्रवृत्ति के सहित आश्रय के अंत:करण में हो इसी का ग्रहण ‘भावों के संचारियों में हो सकता है। यदि कोई राजा अपनी अत्यंत प्रिया पत्नी के तोषार्थ दूसरी स्त्री से उत्पन्न पुत्र के वध के लिये उद्यत दिखाया जाय तो उसका कर्म निर्दय होने पर भी 'निर्दयता’ उसके अंत:करण में जाग्रत् नहीं कही जायगी । वह जो पुत्र को मारने जा रहा है वह अपनी निर्दयता की प्रवृत्ति से नहीं । अतः निर्दयता श्रृंगार का संचारी नहीं कही जा सकती। किसी अनगढ़ मूर्ख को हँसी हँसी में चिढ़ाते चिढ़ाते कोई गडू में इकेल दे और उसके हाथ-पैर टूट जायें तो यह कर्म निर्दय अवश्य कहा जायगा, पर ढकेलनेवाले के अंत:करण में निर्दयता के अभाव के कारण निर्दयता को हास्य रस का संचारी नहीं कह सकते। इसी प्रकार रौद्र' को छोड़ और सब रसों से इसका वहिष्कार हो जाता है।