पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२४२

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मावों का वर्गीकरण | २२७ अविचलित रखनेवाली मानसिक अवस्था का नाम धैर्य है। वीर रस में धैर्य प्रायः संचारी होकर आता है। युद्ध-यात्रा के समय विकट पर्वत, नदी आदि पड़ने पर भी बराबर अग्रसर होने का प्रयत्न किए जाना धैर्य सूचित करता है। इसी प्रकार किसी वस्तु को दान करते समय उस वस्तु के अभाव में होनेवाले कष्ट, कठिनाई आदि की कुछ परवा न करना, किसी धर्म-साधन के मार्ग में घोर कष्ट देखकर भी उस पर अग्रसर होते जाना धैर्य का सूचक होगा। कफन माँगते हुए राजा हरिश्चंद्र अपनी रानी को पहचान लेने पर भी कफन माँगते ही रहे। ‘धैर्य के समान *अधैर्य' भी संचारी होकर आ सकता है, जैसे हरस्तु किंचित्परिवृत्तधैर्यश्चन्द्रोदयारंभ इवाम्बुराशिः । उमामुखे बिम्बफलाधरोठे व्यापारयामास विलोचनानि ।। –साहित्यर्पण, तृतीय अध्याय, विमला टोका पृष्ठ १६५ । इष्ट की प्राप्ति से इष्ट की पूर्ति के अनुभव का नाम ‘संतोष है। रति, क्रोध और उत्साह में यह प्रायः संचारी होकर आता है। तत्त्वज्ञान द्वारा प्राप्त संतोष को संचारियों में नहीं ले सकते । प्रिंय का साक्षात्कार होने पर उसके रूप-दर्शन और वचन-श्रवय से नेत्रों और कानों का तृप्त होना संतोष ही कहा जायगा। [जैसे आई भुले हौं चली सखियान मैं पाई गोबिंद के रूप की झाँकी । त्य पदमाकर हार दियो गृह-काम का अझ लाज कहाँ की । ३ नख तें सिख ल मृदु माधुरी किये भई विलोकनि बाँकी । आन की या छनि देखि भट्स अब देखिबे को न रह्यो कछु बाकी ॥ —जगद्विनोद, ३३१ ।] १ [मिलाइए रसकुसुमाकर, तृतीय कुसुम, पृष्ठ २३ । ]