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रस-मीमांसा

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२४० रस-मीमांसा के प्रति क्रोध का अनुभव उत्पन्न होगा, बल इतना ही पड़ेगा कि अनुभावों और संचारियों के रहने से उसकी तीव्रता तक पहुँचने के लिये जो बना बनाया मार्ग मिलता वह न मिलेगा। श्रोता अपनी तीव्र या मंद प्रकृति के अनुसार क्रोध का तीव्र या मंद अनुभव करेगा। आलंबन को सामान्य रूप न प्राप्त होने पर भाव का साधारणीकरण तो न होगा जिससे श्रोता का ध्यान आलंबन पर रहे और वह उसके प्रति उसी भाव का अनुभव करे जिस भाव को आश्रय प्रकट करता है पर आश्रय के भावात्मक स्वरूप का श्रोता को साक्षात्कार होगा जिससे उसके ( आश्रय के ) संबंध में वह अपनी कोई संमति या अपना कोई भाव स्थिर कर सकेगा। जैसे शकुंतला पर क्रोध करते हुए दुर्वासा को देख या पढ़कर शकुंतला के प्रति क्रोध का अनुभव पाठक या दुर्शक को न होगा क्योंकि शकुंतला का ऐसा चित्रण नहीं हुआ है, जिससे वह क्रोध का सामान्य आलंबन हो सके, सबको उस पर क्रोध उत्पन्न हो सके। ऐसी दशा में श्रोता का ध्यान शकुंतला ( लंबन ) पर न रहकर क्रोध करते हुए ऋषि (आश्रय ) पर रहेगा। यदि वह विचारशील हुआ तो मुनि को क्रोधी समझेगा और यदि उद्वेगशील हुआ तो उनकी क्रूरता देख विरक्ति, जुगुप्सा या क्रोध का अनुभव करेगा। स्वतंत्र रूप में। आए हुए संचारियों के द्वारा भी श्रोता को भाव-प्राप्ति इसी ढंग की होगी। वह उनका अनुभव न करेगा, उनके सहारे और दूसरे भावों का अनुभव करेगा। उदय से अस्त तक भावों की तीन अवस्थाएँ मानी जा सकती हैं-उदय, स्थिति और शांति । ऊपर भावों की जिस अवस्था का उल्लेख हुआ है वह स्थिति की अवस्था है। पर साहित्य में भार्यों के उदय और 'भावों की शांति का प्रभाव भी श्रोता या दर्शक पर