पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२५६

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असंबद भावों का रसत् ग्रहण २४१ स्वीकार किया गया है और रसतुल्य ही माना गया है। किसी 'भाव' के संचार का आरंभ मात्र ‘भावोदय' कहलाता है, जैसे(क) दास जू जा मुख-नोति लखे ते सुधाघर-जोति खरी सकुचात हैं। अागि लिये चली जाति सो मेरे हिये बिच अागि दिये चली जाति है। [ काव्यनिर्णय, १-४६ ।] (ख) कामिनि के कटु बैन, सुनत थिय पलटि चल्यो जब ।। हाँही तीय उसास, नीर नयनन झलक्यो तब ।। पहले पद्य में 'राग' का उदय और दूसरे में 'विषाद' का उदय समझना चाहिए। क्षुद्राशय पात्र में किसी प्रसंग के प्रभाव से सहसा किसी उदात्त भाव का उदय अत्यंत तुष्टिजनक प्रतीत होता है। सदा से दुष्ट कर्म में प्रवृत्त मनुष्य के हृदय में कुछ देख सुनकर यदि अपने कर्म से घृणा उत्पन्न होती दिखाई जाय तो उसका प्रभाव बुरे कामों से जिंदगी भर कानों पर हाथ रखनेवाले किसी साधु की प्रकट की हुई घृणा के प्रभाव से अधिक मर्मस्पर्शी होगा। इसी से उपन्यासों में दुर्वृत्त लोगों का अंत में अपने कर्म पर पश्चात्ताप और लज्जा प्रायः दिखाई जाती है। किसी 'भाव' का दूर होना भाव-शांति है, जैसे १ [ साहित्यर्पण मैं उदाहृत निम्नलिखित छंद से मिलाइए चरपतनप्रत्याभ्यानात्मसादपराङ्मुखे निभृतकितवाचायुक्त्वा इषां परुषीकुते । ब्रजति रम निःश्वस्योच्चैः स्तनस्थितहस्तया । नसनसनिलच्छन्ना दृष्टिः सखौषु निवेथिता ॥ -तृतीय परिच्छेद, श्लोक ३३७ ।