पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२६३

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विरोध-विचार रस-विरोध तीन दृष्टियों से हो सकता है(१) आश्रय की दृष्टि से, (२) आलंबन की दृष्टि से और (३) श्रोता की दृष्टि से । साहित्य-ग्रंथों में जो नैरंतर्यकृत विरोघ कहा है उसे श्रोता की दृष्टि से समझना चाहिए। उसका अभिप्राय यही है कि एक भाव को रस-रूप में ग्रहण करने के उपरांत ही तुरंत श्रोता के सामने ऐसे भाव की व्यंजना न की जाय जिससे उसे अपनी मानसिक स्थिति में सहसा बहुत अधिक परिवर्तन करना पड़े। ऐसे दो विरुद्ध भावों की पूर्वापर स्थिति होने से दो में से एक का भी प्रभाव पूर्ण रूप से हृदय पर नहीं हो सकता। मुक्तक में तो इस नैरंतर्यकृत विरोध की संभावना बहुत ही कम होगी क्योंकि एक पद्य में प्राय: एक ही पूर्ण रस की व्यंजना की जाती है। उसमें आश्रय और आलंबन के एक से अधिक जोड़े की गुंजाइश नहीं होती। प्रबंध-काव्यों में