पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२८०

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अस्यच रूप-विधान २६ $ सके-कर दी जाती हैं। विभावादि सामान्य रूप में प्रतीत होते हैं, इसका तात्पर्य यही है कि रसमग्न पाठक के मन में यह भेद-भाव नहीं रहता कि ये आलंबन मेरे हैं या दूसरे के। थोड़ी देर के लिये पाठक या श्रोता को हृदय लोक का सामान्य हृदय हो जाता है। जब कि आश्रय के साथ अभिन्नता हो गई तब उसके आलंबन भी अपने आलंबन हो ही जायँगे। किसी काव्य में वर्णित किसी पात्र का किसी कुरूप और दुःशील स्त्री पर प्रेम हो सकता है पर उस स्त्री के वर्णन द्वारा श्रृंगार रस का आलंबन नहीं खड़ा हो सकता। अतः काव्य केवल भाव प्रधान ही होगा, विभाव-विधायक कभी नहीं हो सकता। इसी प्रकार रौद्र रस के वर्णन में जब तक आलंबन का चित्रण इस रूप में न होगा कि वह मनुष्य मात्र के क्रोध का पात्र हो सके तब तक वह वणन भाव प्रधान ही रहेगा, उसका विभाव-पक्ष या तो शून्य अथवा अशक्त होगा। पर भाव और विभाव दोनों पक्षों के सामंजस्य के बिना पूरी और सच्ची रसानुभूति हो नहीं सकती। भाव-प्रधान काव्यों में होता यह है कि पाठक या श्रोता अपनी ओर से अपनी भावना के अनुसार आलंबन का आरोप किए रहता है।' प्राचीन काल में भट्ट और चारण युद्धस्थल में वीर रस की कविताएँ पढ़ पढ़कर वीरों को अस्त्रसंचालन के लिये उत्तेजित किया करते थे। यौद्धाओं के सामने कर्मक्षेत्र और शत्रु दोनों प्रत्यक्ष रहते थे। फड़कती हुई कविता सुनकर वे उपस्थित कर्मक्षेत्र विशेष की ओर उन्मुख होते थे। इसी प्रकार आधुनिक काल में भी रात योरपीय महायुद्ध के समय कैंसर और जर्मनों 1 = == १ [ मिलाइए चिंतामणि, पड्लो भाग, पृष्ठ ३०६, ३३८ ।]