पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२९२

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स्मृत रूप-विधान द्रष्टा के रूप में रहते हैं अर्थात् जहाँ आलंबन केवल हमारी ही व्यक्तिगत भावसत्ता से संबद्ध नहीं, संपूर्ण नर-जीवन की भावसत्ता से संबद्ध होते हैं। । अत्यभिज्ञान अब हम उस प्रत्यक्ष-मिश्रित स्मरण को लेते हैं जिसे प्रत्यः भिज्ञान कहते हैं। प्रत्यभिज्ञान में थोड़ा सा अंश प्रत्यक्ष होता है। और बहुत सा अंश उसी के संबंध से स्मरण द्वारा उपस्थित होता है। किसी व्यक्ति को हमने कहीं देखा और देखने के साथ ही स्मरण किया कि यह वही है जो अमुक स्थान पर उस दिन बहुत से लोगों के साथ झगड़ा कर रहा था। वह व्यक्ति हमारे सामने प्रत्यक्ष है। उसके सहारे से हमारे मन में झगड़े का वह सारा दृश्य उपस्थित हो गया जिसका वह एक अंग था। यह वही है" इन्हीं शब्दों में प्रत्यभिज्ञान की व्यंजना होती है । | स्मृति के समान प्रत्यभिज्ञान में भी रस-संचार की बड़ी गहरी शक्ति होती है। वाल्य या कौमार जीवन के किसी साथी के वहुत दिन पीछे सामने आने पर कितने पुराने दृश्य हमारे मन के भीतर उमड़ पड़ते हैं और हमारी वृत्ति उनके माधुर्य में किस प्रकार मग्न हो जाती है ! किसी पुराने पेड़ को देखकर इम कहने लगते हैं कि यह वहीं पेड़ है जिसके नीचे हम अपने अमुक अमुक साथियों के साथ बैठा करते थे। किसी घर या चबूतरे को देखकर भी अतीत दृश्य इसी प्रकार हमारे मन में आ जाते हैं और हमारा मन कुछ और हो जाता है। कृष्ण के गोकुल से चले जाने पर वियोगिनी गोपियाँ जब जब यमुना-तट पर जाती है तब तब उनके भतर यही भावना उठती हैं कि यह वहीं,यमुना-तट है” और उनका मन काल का परदा फाड़ अतीत के उस दृश्य-क्षेत्र में