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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा, जा पहुँचता है जहाँ श्रीकृष्ण गोपियों के साथ उस तंट, घर विचरते थे| मन है जात अर्जी है या नमुना के तीर ।

[ बिहारी-रत्नाकर, ६८१ । ] प्राचीन कवियों ने भी प्रत्यभिज्ञान के रसात्मक स्वरूप का बराबर विधान किया है। हृदय की गूढ वृत्तियों के सच्चे पारखी भावमूर्ति भवभूति ने शंबूक का वध करके दंडकारण्य के बीच फिरते हुए राम के मुख से प्रत्यभिज्ञान को बड़ी मार्मिक के व्यंजना कराई है एते त एव गिरयो विश्वन्मयूरा- "। स्तन्येव म-हरियानि वनश्यलानि । | . • आर्मजु-वंजुललतानि च तान्यमूनि | नीरन्ध्रनील-निचुलानि सरितानि ।' [ उत्तररामचरित २-२३ । ] - एक दूसरे प्रकार के प्रत्यभिज्ञान का रसात्मक प्रभाव प्रदर्शित कंरने के लिये ही उक्त कवि ने उत्तररामचरित में चित्रशाला का समावेश किया है। • कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रत्यभिज्ञान की रसात्मक दशा में मनुष्य मन में आई हुई वस्तुओं में ही रमा रहता है, अपने व्यक्तित्व को पीछे डालें रहता है। १ [ मयूरकूजित ये पर्वत में ही हैं, मत इरिवाली ये वनस्थलियाँ वे ही हैं और 'दर, जुल ( बेत ) लता बानीले निचुली ( निले नैनों से युक्त थे नदी-तट वे ही हैं।.]..::....