पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२८६
रस-मीमांसा

________________

३८६ इस-मीमांसा करके ही संस्कृत के पुराने कवि अपने महाकाव्य और नाटक इतिहास-पुराण के किसी वृत्त का आधार लेकर रचा करते थे । ‘सत्य से यहाँ अभिप्राय केवल वस्तुतः घटित वृत्त ही नहीं, निश्चयात्मकता से प्रतीत वृत्त भी है। जो बात इतिहास में प्रसिद्ध चली आ रही है वह् यदि पक्के प्रमाणों से पुष्ट भी न हो तो भी लोगों के विश्वास के बल पर उक्त प्रकार की स्मृति स्वरूपा कल्पना का आधार हो जाती है । आवश्यक होता है केवल इस बात का बहुत दिनों से जमा हुआ विश्वास कि इस प्रकार की घटना इस स्थल पर हुई थी। यदि ऐसा विश्वास सर्वथा विरुद्ध प्रमाण उपस्थित होने पर विचलित हो जायगा तो वैसी सजीव कल्पना न जागेगी। संयोगिता के स्वयंवर की कथा को लेकर कुछ काव्य और नाटक रचे गए। ऐतिहासिक अनुसंधान. द्वारा वह सार कथा अब कल्पित सिद्ध हो गई है। अत: इतिहास के ज्ञाताओं के लिये उन काव्यों या नाटकों में वर्णित घटना का प्रण शुद्ध, कल्पना की वस्तु के रूप में होगा, स्मृत्याभास कल्पना की तुस्तु के रूप में नहीं । पहले कहा जा चुका है कि मानव-जीवन का नित्य और प्रकृत स्वरूप देखने के लिये दृष्टि जैसी शुद्ध होनी चाहिए वैसी अतीत के क्षेत्र के बीच ही वह होती है। वर्तमान में तो हमारे व्यक्तिगत रागद्वेष से वह ऐसी बँधी रहती हैं कि हम बहुत सी बातों को देखकर भी नहीं देखते । प्रसिद्ध प्राचीन नगरों और गढ़ों के खंडहर, राजप्रासाद आदि जिस प्रकार सम्राटों के ऐश्वर्य, विभूति, प्रताप, आमोद-प्रमोद और भोग-विलास के स्मारक हैं। उसी प्रकार उनके अवसाद, विषाद, नैराश्य और घोर पतन के । = . .! [ मिलाइए, वही, पृष्ठ ५ ]