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रस-मीमांसा

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२८८ रस-मीमांसा हम अमरत्व की आकांक्षा या आत्मा के नित्यत्व का इच्छात्मक आभास कह सकते हैं। अपनी स्मृति बनाए रखने के लिये कुछ मनस्वी कला का सहारा लेते हैं और उसके आकषक सौंदर्य की प्रतिष्ठा करके विस्मृति के खंड में झोंकनेवाले काल के हाथों को बहुत दिनों तक–सहस्रों वर्ष तक-थामे रहते हैं। इस प्रकार ये स्मारक काल के हाथों को कुछ थामकर मनुष्य की कई पीढ़ियों की आँखों से आँसू बह्वाते चले चलते हैं। मनुष्य अपने पीछे होनेवाले मनुष्यों को अपने लिये रुलाना चाहता है। | सम्राटों की अतीत जीवन-लीला के ध्वस्त रंगमंच वैषम्य की एक विशेष भावना जगाते हैं। उनमें जिस प्रकार भाग्य के ऊंचे से ऊँचे उत्थान का दृश्य निहित रहता है वैसे ही गहरे से गहरे पतन का भी। जो जितने ही ऊँचे पर चढ़ा दिखाई देता है गिरने पर वह उतना ही नीचे जाता दिखाई देता है । दर्शकों को उसके उत्थान की ऊँचाई जितनी कुतूहलपूर्ण और विस्मयकारिणीं होती हैं उतनी ही उसके पतन की गहराई मार्मिक और आकर्षक होती है । असामान्य की ओर लोगों की दृष्टि भी अधिक दौड़ती है और टकटकी भी अधिक लगती है। अत्यंत ऊंचाई से गिरने का दृश्य कोई कुतुहल के साथ देखता है, कोई गंभीर बेदना के साथ । जीवन तो जीवन ; चाहे राजा का हो चाहे रंक का । उसके सुख और दुःख दो पक्ष होंगे ही। इनमें से कोई पक्ष स्थिर नहीं रह सकता। संसार और स्थिरता ? अतीत के लंबे चौड़े मैदान के बीच इन उभय पक्षों की घोर विषमता सामने रखकर कोई. १ [ वही, पृष्ठ ८।] | १ [ वही, पृष्ठ ९ । ]