पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

कल्पित रूप-विधान कल्पना काव्य-वस्तु का सारा रूप-विधान इसी की क्रिया से होता है। आजकल तो भाव की बात दब सी गई हैं केवल इसी का नाम लिया जाता है क्योंकि ‘कवि की नूतन सृष्टि केवल इसी की कृति समझी जाती है। पर जैसा कि हम अनेक स्थलों पर कह चुके हैं, काव्य के प्रयोजन की कल्पना वही होती है जो हृदय की प्रेरणा से प्रवृत्त होती है और हृदय पर प्रभाव डालती है । हृदय के मर्मस्थल का स्पर्श तभी होता है जब जगत् या जीवन का कोई सुंदर रूप, मार्मिक दशा या तथ्य मन में उपस्थित होता है। ऐसी दशा या तथ्य की चेतना से मन में कोई भाव जगता है जो उस दशा या तथ्य की मार्मिकता का पूर्ण अनुभव करने और कराने के लिये उसके कुछ चुने हुए ब्योरों की भूतं भावनाएँ खड़ी करता है । कल्पना का यह प्रयोग प्रस्तुत के संबंध में समझना चाहिए जो विभाव-पक्ष के अंतर्गत हैं। शृगार, रौद्र, वीर, करुण आदि रसों के लिंबनों और उद्दीपनों के वर्णन, - प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन सब इसी विभाव-पक्ष के अंतर्गत हैं।