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रस-मीमांसा


की प्राचीन परंपरा में जो उपमान बँधे चले आ रहे हैं उनमें अधिकांश सौंदर्य आदि की अनुभूति के उत्तेजक होने के कारण रस में सहायक होते हैं। पर कुछ ऐसे भी हैं जो आकार आदि ही निर्दिष्ट करते हैं, सौंदर्य की अनुभूति अधिक करने में सहायक नहीं होते―जैसे जंघों की उपमा के लिये हाथी की सुँँड़, नायिका की कटि की उपमा के लिये भिड़ या सिंहिनी की कमर इत्यादि। इनसे आकार के चढ़ाव-उतार और कटि की सूक्ष्मता भर का ज्ञान होता है, सौंदर्य की भावना नहीं उत्पन्न होती; क्योंकि न तो हाथी की सूड़ में ही दांपत्य रति के अनुकूल अनुरंजनकारी सौंदर्य हैं और न भिड़ की कमर में ही। अतः रसात्मक प्रसंगों में इन बात का ध्यान रहना चाहिए कि अग्रस्तुत (उपमान) भी उसी प्रकार के भाव के उत्तेजक हों प्रस्तुत जिस प्रकार के भाव का उत्तेजक हो।

उपर्युक्त कथन का यह अभिप्राय कदापि नहीं कि ऐसे प्रसंगों में पुरानी बँधी हुई उपमाएँ ही लाई जायँ, नई न लाई जायँ। ‘अप्रसिद्धि’ मात्र उपमा का कोई दोष नहीं, पर नई उपमाओं की सारी जिम्मेदारी कवि पर होती है। अतः रसात्मक प्रसंगों में ऊपर लिखी बातों का ध्यान रखना आवश्यक है। जहाँ कोई रस स्फुट न भी हो वहाँ भी यह देख लेना चाहिए कि किसी पात्र के लिये जो उपमान लाया जाय वह उस भाव के अनुरूप हो जो कवि ने उस पात्र के संबंध में अपने हृदय में प्रतिष्ठित किया है और पाठक के हृदय में भी प्रतिष्ठित करना चाहता है। राम की सेवा करते हुए लक्ष्मण के प्रति श्रद्धा का भाव उत्पन्न होता है अतः उनकी सेवा का यह वर्णन जो गोस्वामीजी ने किया है कुछ खटकता है―

सेवत लषन सिया रघुबीरहि। जिमि अविवेकी पुरुष सरीरहि॥

इस दृष्टांत में लक्ष्मण का सादृश्य जो अविवेकी पुरुष से किया