पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३७६

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अप्रस्तुत रूप-विधान ३६३ | संतों और असंतों के बीच के भेद को थोड़ा कहते कहते ‘व्याघात’ द्वारा कितना बड़ा कह डाला है, जरा यह भी देखिए--- | बंदों संत असज्जन चरना | दुख-प्रद उभय, बीच कछु थरना ।। मिलत एक दारुन दुख देहीं । निठुरत एक प्रान हरि लेहीं ।।। इस इतने बड़े भेद को थोड़ा कहनेवाले का हृदय कितना वड़ा होगा ! " बहुत से स्थल ऐसे भी होते हैं, जहाँ यह निश्चय करने में गड़बड़ी हो सकती है कि यहाँ अलंकार है या भाव। इसकी संभावना वहीं होगी जहाँ स्मरण, संदेह और भ्रांति का वर्णन होगा। स्मरण का यह उदाहरण लीजिए बीच ब्रास करि जमुनहिं आए । निरखि नीर लोचन जल छाए । इसे न विशुद्ध अलंकार ही कह सकते हैं, न भाव हीं । उपमेय और उपमान ( राम के शरीर, यमुना के जल ) के सादृश्य की ओर ध्यान देते हैं तो स्मरण अलंकार ठहरता है; और जब अश्रु सात्त्विक की ओर देखते हैं तो स्मरण संचारी भाव निश्चित होता है। सच पूछिए तो इसमें दोनों हैं। पर इसमें संदेह नहीं कि भाव का उद्रेक अत्यंत स्वाभाविक है और यहाँ वही प्रधान है, जैसा कि ‘लोचन जल छाए' से प्रकट होता है। विशुद्ध अलंकार तो वहीं कहा जा सकता है जहाँ सदृश वस्तु लाने में कबि का उद्देश्य केवल रूप, गुण या क्रिया का उत्कर्ष दिखाना रहता है। अलंकार का स्मरण प्रायः वास्तविक नहीं होता; रूप, गुण आदि के उत्कर्ष-प्रदर्शन का एक कौशल मात्र होता है। दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि स्मरण भाव केवल सदृश बस्तु से ही नहीं होता, संबंधी वस्तु से भी होता है। शुद्ध ‘स्मरण' भाव का यह उदाहरण बहुत ही अच्छा है जननी निरखति बान धनुहियाँ । बार बार उर नयननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ ॥