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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा [३] ध्वनि ( चतुर्थ परिच्छेद ) ध्वनि शब्द का व्यवहार चार पृथक्-पृथक् अर्थों में होता हैं-( १ ) जहाँ व्यंग्या में वाच्यार्थं से अतिशयता हो, अर्थात् उत्तम काव्य, (२) जिसके द्वारा व्यंग्यार्थ व्यंजित हो, अर्थात् प्रधान व्यंग्य, (३) रसादि की व्यंजना, (४) व्यंजित रसादि । यहाँ यह शब्द पहले अर्थ में गृहीत हुआ है और उसका लक्षण इस प्रकार है-जिस काव्य में व्यंग्य अर्थ वाच्य अर्थ की अपेक्षा प्रधान या अधिक चमत्कारक हो वह बुनि है। जिसमें ब्यंग्य अर्थ गौण हो वह गुणीभूत व्यंग्य है। ध्वनि के दो प्रकार हैं-( १ ) लक्षणामूलक या अविवक्षित वाच्य और (२) अभिधामूलक या विवक्षित वाच्य । ( अविवक्षित = बाधित )। लक्षणामूलक या अविवक्षित वाच्य ध्वनि अविवक्षितवाच्य ध्वनि के दो प्रकार होते हैं—अर्थातरसंक्रमित वाच्य और (३) अत्यंततिरस्कृत वाच्य ।। उदाहरण अतरसंक्रमित वाच्य ध्वनि-‘आम आम ही है, इमली इमली ही है, कोइल कोइले ही है, कौआ कौआ ही है। यहाँ आम, कोइल इत्यादि शब्दों के व्यवहार में उक्त ध्वनि है। दूसरे अर्थ की ध्वनि लाक्षणिक है। व्यंग्यार्थ हैं “मीठे स्वाद का, मीठे गानवाली' इत्यादि इत्यादि । चे लाक्षणिक अर्थ वाच्यार्थ से एकदम भिन्न नहीं हैं, प्रत्युत मुख्यार्थ का विशिष्ट रूप बतलाते