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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा क्यों न हो। इस कथन से ‘शब्दबुद्धिकर्मणां विरम्य व्यापाराभावः सिद्धांत का उल्लंघन हो जाता है। यदि कोई इस सिद्धांत को नहीं मानता तो उससे पूछा जा सकता है कि अभिधा और तात्पर्य से ही काम चल जाता है तो तीसरी वृत्ति लक्षण की क्या आवश्यकता । | अन्विताभिधानवादी अपने सूत्र ‘यत्परः शब्दः स शब्दार्थः के बल पर कहते हैं कि अभिधा के द्वारा पूर्णतया व्यंग्या की प्रतीति हो सकती हैं। उनका कहना है कि प्रत्येक वाक्य, चाहे वह पौरुषेय हो या अपौरुषेय, किसी कार्य से संबद्ध होता है । काव्य के शब्द भी । कार्यपरक होते हैं । उस कार्य का परिणाम परमानंद की प्राप्ति है। इसलिये काव्य के वाक्य का तात्पर्यं परमानंद हुआ । काव्यगत वाक्य का तात्पर्य समन्वित अर्थ के अतिरिक्त और क्या हो सकता हैं । इसलिये व्यंजना को पृथक् वृत्ति मानने की कोई आवश्यकता नहीं । खंडन “तत्परः शब्द का अभिप्राय स्पष्ट नहीं है। इसका अभिप्राय या तो तदर्थत्व' होगा या तात्पर्य वृत्ति । यदि पहला अभिप्राय हो तो कोई विवाद नहीं क्योंकि व्यंग्यार्थ भी अर्थ ही होता है। यदि दूसरा अभिप्राय हो तो यह पूछा जा सकता है कि अभिहितान्वयवादी मीमांसकों के द्वारा मानी जानेवाली तात्पर्य वृत्ति से ही प्रयोजन है जिसमें संसर्ग-मर्यादा अर्थात् संबंध का बोधन करानेवाली मर्यादा स्वीकृत हैं। यदि यह वही हैं तो यह ध्यान में रखना चाहिए कि विभिन्न अर्थों का समन्वित अर्थ प्रस्तुत करने के अनंतर तात्पर्य वृत्ति क्षीण हो जाती है। यदि यह तात्पर्य के अतिरिक्त कोई दूसरी वृत्ति है तो चौथी वृत्ति स्वीकृत कर ली गई । अब चाहे उसका जो नाम रखा जाय । यदि यह कहा जाय कि तात्पर्य बृत्ति से अन्वित अर्थ और व्यजित रस इत्यादि की प्रतीति एक ही समय में और एक ही साथ होती हैं तो यह बात उपयुक्त नहीं