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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा भाँति रस-ज्ञान भी वासनासंस्कार की पूर्व सत्ता से होता है। चूंकि संस्कार प्रत्यभिज्ञा भी (अतीत में देखे हुए पदार्थ का वर्तमान काल में देखे जानेवाले पदार्थ के सादृश्य का ज्ञान अर्थात् यह वही वस्तु हैं) जगाता है, इसलिये हेतु व्यभिचारी है। जो लोग यह मानते हैं कि प्रत्यभिज्ञा का उदय स्मृति से होता है, संस्कार या वासना से नहीं, इसलिये वह संस्कार से भिन्न वस्तु हैं उनके संबंध में यह आपत्ति नहीं की जा सकती। | [५] रस-निर्णय | सहृदय पुरुषों के हृदय में वासना रूप में स्थित रति आदि स्थायी भाव ही विभाव, अनुभाव और संचारी के द्वारा अभिव्यक्त होकर रस के स्वरूप को प्राप्त होते हैं । | इससे प्रकट है कि सहृदय पुरुषों के हृदय में प्रसुप्त भाव ही रस का रूप धारण करते हैं ,जब वे विभाव आदि के द्वारा व्यंजित किए जाते हैं। किसी के हृदय में भाव का व्यक्त होना वस्तुतः उस भांव की अनुभूति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इसलिये इस बात को हम और स्पष्ट रूप में यों कह सकते हैं कि विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के प्रदर्शन द्वारा भाव की अनुभूति श्रोता या दर्शक के हृदय में रस रूप में उत्पन्न होती है । इस विभाव-अनुभाव के संयोग से उसी प्रकार उत्पन्न होता है जिस प्रकार दूध और मट्ठा या जमावन के मिश्रण से दही उत्पन्न होता है ( दध्यादि न्याय )। अब यह प्रश्न उठता है कि संयोग की यह प्रक्रिया कहाँ होती है। यह श्रोता या दर्शक के हृदय में होती हैं। किंतु विभाव और अनुभाव श्रोता के मन में केवल ज्ञान के रूप में १ [ देखिए साहित्यदर्पण, पृष्ठ ६० ।]