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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा । साधारण अधिकार है और इससे काव्य का अनुशीलन ललित कला के रूप में करने की उत्कट साध अवश्य उदित होती है। किंतु प्रकृति या मनुष्य का अनुशीलन करने के लिये उसमें बहुत ही कम आकर्षण बच रहता है । यही दूसरे प्रकार का अनुशीलन ऐसा हैं जिसमें दोनों प्रकार के कवियों की समस्त शक्तियों का सामंजस्य घटित हो सकता है। यथार्थवाद कवि के लिये केवल विहित ही नहीं हैं प्रत्युत उसमें तव तक इसकी तात्विक जिज्ञासा होनी चाहिए जब तक वह उस उच्च दशा में नहीं पहुँच जाता, जहाँ पहुँचकर वह अपने व्यावहारिक जीवन और काव्य के वण्र्य स्वर्ग में कोई अंतर न पाए । अन्य कलाओं की दृष्टि से काव्य की स्थिति। यवनान देश की इस प्राचीन उक्ति से कि काव्य मुखर चित्र हैं और आलेख (चित्र) मौन काव्य से आधुनिक चित्र की अति के दोष का समाधान कुछ दूर तक हो जाता है । इस कथन की अवज्ञा करके यवनानियों ने काव्य का अनुशीलन संगीत और नृत्य के साहचर्य से किया। वही काव्यकला 'निर्माण' कही जाने के बहुत पहले से गायन' कही जाती रही है। । किंतु कवियों की शब्दजन्य लय संगीत से पृथक् वस्तु है, वह संगीत के नियमों से शासित भी नहीं होती, भले ही लयप्रेमी कवि निरपेक्ष संगीत के लिये बहरे ही रहे हों, कुछ ने तो उसके प्रति अरुचि ही दिखलाई है। काव्य में आकार के प्रति उल्लास के अंतर्गत प्रधान है आकांक्षा और उस आकांक्षा की पूर्ति। यह सतुकांत पद्यों से बहुत स्पष्ट हो जाता है। मुक्त छंद में भी कवि की लय में यह तत्त्व ही काम करता है।