पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/५०

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काव्य दोऊ अनंद सों अाँगन माँझ बिराजै असाढ़ की साँझ सुद्दाई ।। प्यारी के बूझन और तिया को अचानक नाम लियो रसिकाई । आई उनै मुँह में हँसी, कोहि तिया पुनि चाप सी भी चढ़ाई। अखिन ते गिरे आँसू के बूंद, सुहास गयो उड़ि हंस की नाईं ॥ इसके विरुद्ध बिहारी की उन उक्तियों में जिनमें विरहिणी के शरीर के पास ले जाते ले जाते शीशी का गुलाबजल सूख, जाता है; उसके विरह-ताप की लपट के मारे माघ के महीने में भी पड़ोसियों का रहना कठिन हो जाता है, कृशता के कारण विरहिणी साँस खींचने के साथ दो-चार हाथ पीछे और सॉस छोड़ने के साथ दो-चार हाथ आगे उड़ जाती है, अत्युक्ति का एक बड़ा तमाशा ही खड़ा किया गया है। कहाँ यह सब मजाक कहाँ विरहवेदना ! | यह कहा जा चुका है कि उमड़ते हुए भाव की प्रेरणा से अक्सर कथन के ढंग में कुछ वक्रता आ जाती है। ऐसी वक्रता काव्य की प्रक्रिया के भीतर रहती हैं । उसका अनूठापन भावविधान के बाहर की वस्तु नहीं। उदाहरण के लिये दासज़ी की ये विरहदशा-सुचक उक्तियाँ लीजिएअब तौ विहारी के वे बानक गए री, | तेरी तन-दुति-केसर को नैन कसमोर भो । १ [ धाई सीसी सुलखि बिरह बरति बिललात । | बिचही सुखि गुलाब गों; छींटौ छुई न गात ॥] २ [ अड़े ६ आले बसन जाडेहू को रातिं । | साहसु कसै सनेह-बस सखी सबै ढिग जाति ॥] ३ [ इत अवति चलि, जाति उत चली छ-सातक इथे । चदी हिंडो मैं रहे लगी उसासन साथ ॥]