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काव्य

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काव्य ही नहीं चल सकता। पर साथ ही यह भी स्पष्ट है कि ये साधन हैं, साध्य नहीं। साध्य को भुलाकर इन्हीं को साध्य मान लेने से कविता का रूप कभी कभी इतना विकृत हो जाता है कि वह कविता ही नहीं रह जाती । पुरानी कविता में कहीं कहीं इस बात के उदाहरण मिल जाते हैं।

अलंकार चाहे अप्रस्तुन वस्तु-योजना के रूप में हों ( जैसे, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा इत्यादि में ) चाहे वाक्य-वक्रता के रूप में ( जैसे, अप्रस्तुतप्रशंसा, परिसंख्या, व्याज्ञस्तुति, विरोध इत्यादि में ), चाहे वर्ण-विन्यास के रूप में (जैसे, अनुप्रास में ) लाए जाते हैं वे प्रस्तुत भाव या भावना के उत्कर्ष-साधन के लिये ही । मुख के वर्णन में जो कमल, चंद्र आदि सामने रखे जाते हैं वह इसी लिये जिनमें इनकी वर्णरुचिरता, कोमलता, दीप्ति इत्यादि के योग से सौंदर्य की भावना और बढ़े। सादृश्य या साधर्म्य दिखाना उपमा, उत्प्रेक्षा इत्यादि का प्रकृत लक्ष्य नहीं है। इस बात को भूलकर कवि-परंपरा में बहुत से ऐसे उपमान चला दिए गए हैं जो प्रस्तुत भावना में सहायता पहुँचाने के स्थान पर बाधा डालते हैं। जैसे, नायिका का अंगवर्णन सौंदर्य की भावना प्रतिष्ठित करने के लिये ही किया जाता है। ऐसे वर्णन में यदि कटि का प्रसंग आने पर भिड़ या सिंह की कमर सामने कर दी जाएगी तो सौंदर्य की भावना में क्या वृद्धि होगी ? प्रभात के सूर्यबिंब के संबंध में इस कथन से कि ‘है शोणितकलित कपाल यह किल कापालिक काल को' अथवा शिखर की तरह उठे हुए मेघखंड के ऊपर उदित होते हुए चंद्रबिंब के संबंध में इस उक्ति से कि “मनहुँ क्रमेलक-पीठ  धर्यो गोल

- १ [ केशवदासकृत रामचंद्र-चंद्रिका, पाँचवाँ प्रकाश हंद १० ।] ४