कविवर केशवदास ] २२३ [ 'हरिऔध' तद्भव रूप में, और यह दोनों रूप नियम के अन्तर्गत हैं । ऐसी अवस्था में यह सोचना कि शब्द-व्यवहार का उनका कोई सिद्धान्त नहीं, युक्ति-संगत नहीं। ____ मैंने यह कहा है कि उनके ग्रंथ की मुख्य भाषा ब्रजभाषा ही है। इसका प्रमाण समस्त उद्धृत पद्यों में मौजूद है। उनमें अधिकांश ब्रज- भाषा के नियमों का पालन हैं। युक्त-विकर्ष, कारक-लोप, ‘णकार', 'शकार', 'क्षकार के स्थान पर 'न', 'स', और 'छ' का प्रयोग, प्राकृत भाषा के प्राचीन शब्दों का व्यवहार, पंचम वर्ण के स्थान पर अधि- कांश अनुस्वार का ग्रहण इत्यादि जितनी विशेष बातें ब्रजभाषा की हैं वे सब उनकी रचना में पायी जाती हैं । उद्धृत पद्यों में से पहले, दूसरे और तीसरे नम्बर पर लिखे गये कवित्तों में तो ब्रजभाषा की सभी विशेषताएँ मूर्तिमन्त होकर विराजमान हैं। हाँ, कुछ तत्सम शब्द अपने शुद्ध रूप में अवश्य आये हैं। इसका हेतु मैं ऊपर लिख चुका हूँ। उनकी रचना में 'गौरमदाइन', स्यों', 'बोक', 'बारोठा', 'समदौं', 'भाड्यो' आदि शब्द भी आते हैं। नीचे लिखी हुई पंक्तियाँ इसके प्रमाण हैं:- १-देवनस्यों जनु देवसभा शुभ सीय स्वयम्बर देखन आई । २-"दुहिमा समदौ सुन पाय अबै ।” ३-कहू भांड भांड यो करें मान पावै । ४-कहू बोक बाँके कहूँ मेष सूरे। ५ -- धनु है यह गौरमदाइन नाहीं। ६-'बारोठे को चार कहि करि केशव अनुरूप' । ये बुन्देलखण्डी शब्द हैं । उनके प्रान्त की बोलचाल में ये शब्द प्रचलित हैं । इसलिए विशेष स्थलों पर उनको इस प्रकार के शब्दों का
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