पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/३१

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रहीम का परिचय।


वहाँ भेजा तो उस तपस्विनी राधा ने इस शुभ संवाद के सुनने के लिए उद्धवजी के दर्शन भी न किए। परन्तु उनके चलते समय गोपियों ने उन से नम्र होकर यह निवेदन किया कि --

कहु रहीम उत जायकै, गिरिधारी सों टेरि।

राधे-दृग-जल-झरन ते, अब ब्रज बूड़त फेरि॥

इन्द्रके प्रकोप से ब्रज की रक्षा करने के लिए उस गोवर्धन धारण करनेवाले गिरिधारी से यह निश्चय दिलाते हुए कहना कि ब्रजपर अब वही विपत्ति शीघ्र ही फिर आनेवाली है। तुम्हारे वियोग में राधिका की अविरल अश्रु-वर्षा से व्रज डूबना ही चाहता है। जैसे उसबार ब्रज को बचाकर सब की रक्षा की थी, इसबार भी दर्शन देकर राधिका के अश्रु- मोचन को बन्द करें और व्रज की रक्षा करें। अन्यथा इसबार व्रज अवश्य डूब जायगा और फिर आने पर कुछ हो न सकेगा -- रोग असाध्य हो जायगा।

हाथी के ऊपर रहीम की एक बड़ी मनोहर उक्ति है। हाथी जब चलता फिरता है तो वह अपनी सूंड़ को पृथ्वी से इधर-उधर स्पर्श करता हुआ चलता है। उस समय ऐसा मालूम पड़ता है कि किसी वस्तु को ढूंढ-सा रहा है। कभी धूल को सूँड में भर कर अपने मस्तक और पीठ पर डालता है। इसीपर रहीम ने कहा है कि --

धूरि धरत निज सीस पर, कहु रहीम केहि काज।

जेहि रज मुनि पत्नी तरी, सो ढूँढ़त गजराज॥