पीतम छवि नैनन बसी, पर छवि कहाँ समाय ।
भरी सराँय रहीम लखि, आपु पथिक फिरिजाय ॥१११॥
पूरुष पूजैं द्यौहरा, तिय पूजे रघुनाथ ।
कहु रहीम कैसे बने, भैंस-बैल को साथ ॥ ११२ ॥
बड़ माया को दोष यह, जो कबहूँ घटि जाइ।
तौ रहीम मरिबो भलो, दुख सहि जियै बलाइ ॥ ११३ ॥
बड़े पेट के भरन को, है रहीम दुख बाढ़ि ।
याते हाथी हहरि के, दियो दाँत द्वै काढ़ि ॥ ११४ ॥
बड़े दीन को दुख सुने, लेत दया उर आनि ।
हरि हाथी सों कब हुती, कहु रहीम पहिचानि ॥ ११५ ।।
बड़े बड़ाई ना तजैं, लघु रहीम इतराय।
राय करौंदा होत है, कटहर होत न राय ॥ ११६ ॥
बड़े बड़ाई ना करैं, बड़े न बोलैं बोल ।
रहिमन हीरा कब कहैं, लाख टका है मोल ॥ ११७ ॥
बढ़त रहीम धनाढ्य धन, धनै धनी के जाइ।
घटै-बढ़ै वाको कहा, भीख मॉगि जो खाइ ॥ ११८ ॥
बरु रहीम कानन बसिय, असंन करिय फल तोय ।
बंधु-मध्य गति दीन ह्वै, बसिबो उचित न होय ॥ ११६ ॥
११२-१-देवी-देवता ।
- ११३-देखो दोहा नं० २५३
११६-१-एक उपाधि का नाम है। ११६-१-आहार- संस्कृत में 'भर्तृहरि' का एक श्लोक भी इसी आशय का है:-
वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्रसेवितं द्रुमालयं पक्वफलाम्बुभोजनम् ।
तृणेषु शय्या परिधानवल्कलं न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनम् ॥