पृष्ठ:राजविलास.djvu/१००

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राजविलास । हस धीर ॥ लछिन चारु तसु तनु लछि । पर उपगार- वन्त प्रतछि ॥ १४ ॥ ससि रवि सुर सुरेस्वर शंभु । उदधि सुमेरु सुर- सरि अम्भु ॥ अविचल ज्यौं लुए अवदात । बोलहि मान त्रिजग विख्यात ॥ ७५ ॥ ॥ कवित्त ॥ बसुमति रखन बीर बिमल मति धरन क्षत्री वछ । सीसोदा कुल सेभ झारि न भरि षग झट ॥ लीलापति बहु लछि सुगुनगाहक ढूढ़ सायक । न्यायवन्त गुरु नयन दत्त हय गय धन दायक ॥ भारय समत्थ भुवि सुजसभर भागवन्त सु अभंगभर श्रीराजसिंह महाराण को भीमसिंह कुँवर सबर॥७६ छंद दण्डक । भीमसिंह कुंभार मह भट । झूरि नंषहि अरिन बग झट ॥ घाउ घल्लन सीह गज घट । विरुदवन्त सुमन्त कुलवट ॥ ७७ ॥ . बिभव तेज सदैव बट्टइ। कुंति ते कंटंकन कट्टइ । गिरि समान गुसान गइ । चढ़त हय रिपु चाक चट्टइ ॥ ८ ॥ . पुज्जने सिर करत दंडह । अछि हय गय बल अखंडह। खग्ग बल खेल खेत खंडह । अकल अप्प सदा अदंडहः॥ ७८॥