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पृष्ठ:राजविलास.djvu/१०३

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राजविलास । ॥ कवित्त ॥ चढ़ सेन चतुरङ्ग राण रवि सम राजे सर । मनो महोदधि पूर बारि चहु ओर सु विस्तर ।। गय बर गुञ्जत गुहिर अंग अभिनक एरावत । हय बर घन हीसन्त धरनि खुरतार धसकत । सल सलिय सेस दल भार सिर कमठ पीठि उठि कल कलिय। हल हलिय असुर धर परि हलक रबनि सहित रिपु रलतलिय ॥१॥ छन्द पहरिय। सम्बत प्रसिद्ध दह सत्त भास । वत्सर सु पञ्च दस जिठ मास ॥ सजि सेक राण श्री राज सीह । असुरेश धरा सज्जन अबीह ॥२॥ निर्घोष धुरिय नीसान नद्द । सहनाई भेरि जङ्गी सु सद्द ॥ अति बदन बदन बट्टी अवाज । सब मिले भूप सजि अप्प साज ॥३॥ किय सेन अग्ग करि सेल काय । पिखन्त रूप पर दल पुलाय ॥ गुंजंत मधुप मद भरत गर्छ । चरषी चलन्त तिन अग्ग पछ ॥ ४ ॥ ___सोभन्त चौर सिन्दूर शीश। रस रङ्ग चङ्ग अति भरिय रीस ॥ सो झाल घटां मनु मेघ श्याम । ठन- कन्त घंट तिन कण्ठ ठाम ॥ ५॥