पृष्ठ:राजविलास.djvu/१०९

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राजविलास । १०२ अति रोसहिं कीन इलातर उप्पर कंचन रूप निधान कड़े । भरि ईभष जान सुखच्चर सूभर वित्तहिं भृत्य अनेक बढ़े ॥ जस वाद भयौ गिरि मेरु जितौ हरषे सुर आसुर नर हरं । चित्र कोट धनी चढ़ि राज सी राण युमारि उजारिय माल पुरं ॥ ३६ ॥ जय हिन्दु धनी यवनेशहिं जीतन मारन ही यु म्लेछ मही । अवतार तुहीं इल भार उतारन तोकर षग्ग प्रमान कहीं ॥ जगतेश सु नंद जयौ जगनायक बंस विभूषन बीर बरं । चित्रकाट धनी चढ़ि राज सी राण यु मारि उजारिय माल पुरं ॥ ३७ ॥ निज जीति करी रिपु गाढ़ नसाइय पाए देत निसान खरे । पयसार सु कीन सिंगारि उदयपुर आइ अनेक उछाह करे॥ कबि मान दिए हय हत्थिय कंचन बुट्टिय जानि कि बारि धरं । चित्र काट धनी चढ़ि राजसी राण यु मारि उजारिय माल पुरं ॥३॥ ॥ कबित्त ॥ माल पुरहिं मारयौं कनक कामिनि घर घर किय। गारिय आसुर गाढ़ नीर चढ़यौ सु बन्स निय ॥ इन कुल नीति सु एह गढे आलम गहि मोषन । अनमी अनड अभङ्ग नित्य निर्मल निरदूषन ॥ अज सिंह पियै जल घाट इक पग तेज लीयै सुषिति