पृष्ठ:राजविलास.djvu/१११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१०४ राजविलास । छन्द गुणावेलि। कहिये सुभ राज कुंभारी, अच्छी अपच्छरी अनु- हारी। वपु सोभा कञ्चन बरनी, हरि हर ब्रह्मा मन हरनी ॥ ६॥ सचि सुरभि स कामल सारी, कव्वरि मन नागिनि झारी । सिर मोती मांग सु साजै, राषरी कनक मय राजै ॥७॥ ____ लखि शीश फूल रवि लो, अष्ठमि शशि भाल सु श्रोपैं। बिन्दुली जराउ बखानी, अलि भृकुटि प्रोपमा पानी ॥८॥ छवि अञ्जन दूग मृग छोना, पतनिय श्रुति जरित तरोना । नकबेसरि सोहति नासा, पयनिधि सुत लाल प्रकाशा ॥६॥ ___ पल उपचित गच्छ प्रधानं, अति अरुन अधर उपमान । रद दारिम बीज रसाला, पढ़िये मनु बिम्ब प्रवाला ॥ १० ॥ - कलकण्ठ सुरसना कुहके, मुख स्वास कुसम वर महकें । चित चुभी चिबुक चतुराई, ससि पूरन वदन सुहाई ॥ ११ ॥ ___मनु काम लता इहू मारी, नीकी गर पोतिन बोरी। कँठसिरी तीलरी कहिये, चम्पकली हंस सुभ चहियै ॥ १२ ॥