पृष्ठ:राजविलास.djvu/११३

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२०६ राजबिलासा रुचि सहज पाइ तल रत्तै, जावक वर सोभ सु जित्ते । गोरी सी सागय गवनी, रम्भा रति केहरि रवनी ॥ २१ ॥ जसु रूप अधिक इक जीहा, लहिये क्यों पार मुलीहा । कवि मान कहै सुखकारी, नन ता सम को वर नारी ॥ २२ ॥ ॥ कवित्त ॥ इक दिन पालम अखि बचन विपरीति रज्ज बल। सुनि राठोर सु जानि मान मृगराज राज कुल । हमहिं देहु चित हरषि बहिनि तुम सुनिय रूप बर देहु तुमहि धर देश गाउ हय गय समान गुर ॥ रठोर ताम आधीन रुख तुरक बचन किन्नोतहति । कलि युग प्रमान कवि मान कहि कमधज कछ- वाहा कुमति ॥ २३ ॥ मान सिंह नृप सोचि मन, तुरक बिचारिस तप्प । कन्या तब ब्याहन कही, मोरंजेबहि अप्प । २४ ॥ छन्द त्रोटक । सुनि बत्त सु रूप सुता श्रबनं, विलखाइ बदन्न भई विमनं । तिहि सोचहि अन्न रु पान तजे, भह- राइ परी नन धीर भजे ॥ २५॥ ___करुना करते इह रीति करी, अब पासुर गेह तिया अमरी । गुरु संकट तें मुहि कांन गहें, कुन- नन्ति सखी जन मंझ कहें ॥ २६ ॥