सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:राजविलास.djvu/११६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राजबिलासा १०० ॥ कवित्त ॥ अवलाकृत अरदास विप्र मुष वसु निरु विष खन् । चित्रकोट पति चढ़ रूप कुंभरी पति रखन ॥ घुरत निसाननि घमस गुहिर घन ज्यों गय गज्जन। सुभ बन्दी जन सद्द बाजि खुरतार सु बज्जन ।। हय हंस चढ़ चामर ढलत धवल छत्र शीशहिं धरिय । सोवन जराउ युत सेहरो सुन्दरि ब्याहन संचरिय॥४२॥ ॥दोहा॥ दैन बधाई सोइ द्विज, रूप सुता प्रति रंग। आयो सेना अग्ग तें, उद्यमवन्त अभङ्ग ॥ ४३ ॥ अखिय भाइ बधाइ इह, बारी तो बड़ भाग । राण राजसी राज बर, आए धरि अनुराग ॥४४॥ सुनि सु बधाई नृप सुता, उपज्यो उर उल्हास । कनक रजत पटकूल करि, पूरन किय द्विज आस ४५ रूप नगर महाराण की अधिक बढ़ी सु अवाज । मानसिंह नृप हरषि मन, सजै ब्याह वर साज॥४६॥ बंधे तोरन रतन मय, थप्पि रजत युग यम्भ ।. कनक कलस मंडित मुकुर देषत होत अचम्भ ॥४॥ चोरिय मण्डिय चित चुरस, कनक भण्ड बहु पानि । मंडप खम्भ सु कनक मय, गूडर जरकस तानि ४८। छन्द रसालल । राण राजेसरं, बीर हिन्दू बरं । ऊंच तनु अम्बरं, सुरति सा डंबरं ॥ ४ ॥