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पृष्ठ:राजविलास.djvu/११७

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राजबिलास।

हंस हय सुन्दरं, स्वर्ण साकति धरं।
प्रगट गति पातुरं, आरुहे आतुरं॥५०॥
सीस बर सेहरं, जरित हेमं जरं।
षग्ग करि षंडरं, सेत छत्रं सिरं॥५१॥
चारु दो चामरं, कनक दंडं करं।
बिझए दो नरं, रूप एतं बरं॥५२॥
भीर मत्ती पुरं, नेन नारी नरं।
निरष ए नर बरं, उल्हसं ते उरं॥५३॥
बाजि घन घुम्मरं, भूरि चढ़े भरं।
सेन बहु सिंधुरं, प्रचुर पायक चरं॥५४॥
घोष नौवति धुरं, सेर वन्दी सुरं।
धरनि रज धुन्धरं, ढंकियं दिनकरं॥५५॥
सोषि सलिता सरं, थान रिपु थर हरं।
अमग मग्गं परं, पत्त पहु मुर धरं॥५६॥
राग रमनी रसं, नाह अद्धी निसं।
पत्त पुर गोयरं, तूर बम्बक घुरं॥५७॥
पील सों तें जरे, पार को उच्चरें।
हिंस ई हेम्बरं, गज्ज घन गैम्बरं॥५८॥
सरल सरनाइयं, गायनं गाइयं।
राग षंभा इती, श्रवन, सम्भा इती॥५९॥
सोर सग गट्टयं, भांचपा छुट्टयं।
विरुद बन्दी वदै, सरस जै जै सदै॥६०॥