पृष्ठ:राजविलास.djvu/१२६

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__ ११९ राजबिलास। बसत एक थल बैर बिन; मृग मृगपति अहि मार । मिलत देव दानव सुमन, यदुपति महिमा जोर ॥३॥ ता तीरथ भेटन सुहरि, उपज्यौ हर्षं अपार । राजसिंह महराणा तब, सजि दल बल श्रीकार ॥४॥ बढ़ी अवाज सु सकल बसु, बजत निसाननि बंध । सजे सूर सामंत नृपु, आनंदित अबिलंब ॥ ५॥ छन्द पद्धरी। अविलंब सज्जि दल वल अभंग, चढ़ि चित्र- काट पति चातुरंग । पटकूल बिबिधि उन्नत पताक, नौबति निसांन बज्जत एराक ॥ ६ ॥ सिंधुर कपाल पट मद अवंत, निझरन जानि गिरवर झरंत । गुमगुमत भौंर गन परि सुभीर, गरजंत सजल जनु घन गुहीर ॥ ७ ॥ __सत्तंग चंग घर संलगंत, सिंदूर तेल शीशहिँ सुभंत । संढुरत चौंर सिर व सुसेत, मह सुडदंड सेोभा समेत ॥८॥ दुति विमल युगल दृढ़ दिग्घ दंत, धरहरत कोट जिन जोर दिंत । ठननंकि नद्द बहु बीर घंट, उनमूरि विटपि नंषत उझंट ॥६॥ नूपर सु पाइ घुघरूनि नाद, रुन झुनत चलत जनु वदत वाद । जंजरित भार संकर जंजीर, संच- लत चाल चंचल समीर ॥ १० ॥