पृष्ठ:राजविलास.djvu/१२७

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१२० राजबिलासा लहलहत मरुत युत लंब केतु, बैरष सुढाल डलकंत सेतु । पभनंत धत्त धत पीलवान, तपनीय करांकुस तरित जांन ॥ ११ ॥ चर पीरु अगर चहुंघां चलंत, पय इक्क भरत विरुदनि वदंत । वनि पिट्ठ डाल नौबति निसान, सुंडाल सकल सुरपति समान ॥ १२ ॥ . प्रर्बा एराक प्रारब उपन्न, काश्मीर कच्छि कोकनि सुकन्न । कांबोज जात काविल कलिंग, सेंधवि सुबीर सिंहलि सुअंग ॥ १३ ॥ पय पंय पौन पथके प्रधान, बंगाल चाल बर विविधि बान । मंजन सुरंग लाषी सुमार, गंगा तरंग गुलरंग गोर ॥ १४ ॥ हरियाल हरित हीर हरि हंस, किरडै कुमैत चंपक सुवंस । सुक पक्ष चास चंचल सलील. अलि रोझ रंग अँबरस असील ॥ १५ ॥ किलकिले कातिले हय कंधाल, तुरकी रु ताजि गरु रंग साल । संजाब बोर मुसकी सतेज, हेपनि सहेष हेषत सहेज ॥ १६ ॥ सिंगार सार साकति सुवर्ण, जिगमगति जाति नग अधिक अर्ण । गुथिय. सुबेनि खंधहि सुमंत, ततथेइ तांन नट ज्यों नचंत ॥ १७ ॥ परवरिय सजर परवर सभार, पहुचें न पंखि