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पृष्ठ:राजविलास.djvu/१२८

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१२१ राजविलास। पाइनि प्रचार । आरुहे तिनहि भट नृप अनेक, सामंत मत्त साधर्म टेक ॥ १८ ॥ विरुदेत बीर आजान बाहु, सज सिलह कवच सुन्दर सनाहु । संग्राम काम जिन अचल सीम, भारत समत्थ जनु अङ्ग भीम ॥ १८ ॥ चौघण्ट चक्र चारथ सुचंग, जिन जुत्त धुरा चंचल तुरंग । चकडोल चारु कंचन सु कुम्भ, संभरिय हेम धन रूप रंभ ॥ २० ॥ ___ उत्तङ्ग चक्र गंत्री अनूप, सोरठिय सेन जो ए सरूप । घ्रननंकि ग्रीव घुघरिन माल, झणनंकि चरण झंझर सु साल ॥ २१ ॥ बिन हङ्क सङ्क गति गन्धबाह, क्षुर अंग जरित सोवन सराह । बैठे सु वन्ध वर बहिल वान । पंचांग वास सुन्दर सयान ॥ २२ ॥ ___पयदल पयोद दल ज्यों अपार, उन्नत सु अंग जंगहि जुधार । करवाल कुन्त कोदण्ड चण्ड, सिप्पर सुतौंनधर रन बितण्ड ॥ २३ ॥ धसमसत धपत धर तोब धार, बेधंत पत्र गोरी प्रहार । पति भक्त सक्ति सायुध सु जोध, कल हान यान केहरि सक्रोध.॥ २४ ॥ दलं प्रबल मध्य दीपै दिवान, रबि विम्ब रूप राजेश रान । एराकि अश्व आरोह जोह, नग हेम