पृष्ठ:राजविलास.djvu/१३०

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राजविलास।

हय हेष हेष गजराज गाज, करभनि कराह नर वर समाज । कह कह विसाल कल रव सु सोर, बबरिय बहरि दिसि बिदिसि ओर ॥ ३३ ॥°

डगमगति दुर्ग परहति खंड । बन गहन दुरत दुज्जन बितंड। राजेस रान सु पयान साल, थर- हरति दिल्लि जनु मुङ्ग थाल ॥ ३४ ॥

॥ कवित्त ॥

थरहरि आसुरथान पान सुलतान ससंकिय । भू प्रियानि भामिनी हीय हहरति हर लंकिय ॥ टुरति सु फिरति दरीनि बाल निज रुदत विमुक्कति हार डार सु हमेल तुटत भूषन बन नक्कति ॥ पर भूमि नगर पुर उजरि प्रज दिसि दिसि बढिय सुदंद अति । बिन बुद्धि बिकल अरि कुल सकल चढ़त निसनि चित्रकोट पति ॥ ३५ ॥ सिन्धुर अश्व सिंगारि लछि नग हेम लेइ लख । कन्या बर करबाल माल मुगताफल सनमुख ॥ प्रावत भेट अनेक अनमि लुलि लुलि पय लग्गत । गति मति तजत गइन्द जब सु कण्ठीर बज्ज गत। भय छोह गीर बंके सुभर चलत चंड चित चोर गहि । राजेस राण सु. पयान सुनि मिलत अमिल रखन सु महि ॥ ३६ ॥

गहिल गात गुजरत शीत चढ़ि सोरठ संकत ।