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पृष्ठ:राजविलास.djvu/१३३

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राजविलास । दुति । धज छत्र चार आहूत विधि सकल सज्ज किय हिन्दु पति ॥ ४६॥ श्रीपति ग्रह सिंगार पंभ जरवाफ पटम्बर । बन्धे चन्द्रोपम बिचित्र मुक्ता मनि सुन्दर ॥ बन्धि द्वार तोरन सुथार पटकूल मुकुर मय । बिबिध कुसुम मण्डप बनाय रचि तह रंभालय ॥ तिन मध्य सिंहासन कनक को कमलापति बैठन सु किय । स्वस्तिक सवारि पंचधान के दीप धूप फल फूल श्रिय ॥४७॥ ॥ दोहा ॥ दीप धूप फल फूल श्रिय, पसरति सुरति समीर । गीत नृत्य बादित्र धुनि, गरजत गगन गंभीर ॥४८ इत्यादिक अविलंब ते, मंगल सकल मिलाय । हरषे हिन्दूपति सु हिय, पूजन श्रीपति पाइ ॥४॥ सकल सेन सामन्त युत, अश्व हंस भारोह । घन निसान नौबति घुरत, चामर ढलत सु सोह॥५०॥ 'बोलत बहु कवि बर विरुद, हिन्दूपति हरषंत । प्रतिदिशि दुब्बल दीन प्रति बरषा धन बरषन्त ॥५१॥ अनुक्रमि हरि गृह आइके, देषि प्रभू दीदार । रोमांचित चित अङ्ग रुचि, जंपत जय जयकार ॥५२॥ ॥ कवितं ॥ जय यदुपति जगनाथ जगतरक्षक जगजीवन ।