पृष्ठ:राजविलास.djvu/१३५

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राजविलास । सारंगपानि सभाग नाग नत्थन नारायन । सिंधु सयन कर सुखद पुन्य तीरथ पारायन ॥ दामोदर द्वारावति धनी यज्ञ मर्त्य संकलित यश । जय जय सु जनार्दन जगत गुरु राधा बल्लभ रास रस५६ जयतु यशोमति नंद नंदनन्दन नरकांतक । गोपी प्रिय दधि गृहन कालयवनहिं उपशांतक ॥ मधु मुर मर्दन दुअन हमसि लघु पन माषन हर । चकचूरन चाणूर सबल शिशुपाल क्षयङ्कर ॥ देवकी नन्द रवि कोटि दुति जरा सिन्धु सम जंग जय । दुर्योधन करन दुसासनह क्षिति अनेक खल कीन षय ॥ ५ ॥ करिके ब्रज पर कोप मुसुलधारनि घन मंडिय। बद्दल वसुमति व्योम एक करि अधिक उमंडिय ॥ उदक चढ़त आकाश गोप गोपी सब गइयनि । गोवर्द्धन गिरि गयो भीर पत्ती निज भइयनि । बैराट रूप रचि विष्णु तब कर अंगुरि पर धरि अचल । बरसन्त सत्त अहनिशि अवधि सो संकट टारयौ सकल ॥ ८ ॥ ध्रुव को ध्रुव करि धरयौ पैज प्रहलाद संपूरिय । द्र पद सुता दुकूल वृद्धि करि कीचक चूरिय ॥ अम्बरीष उद्धरचौ सधन किन्नौ सु सुदामा । दृष्टि त्रिलोचन दीन रखि पन रुष मनिरामा ॥