सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:राजविलास.djvu/१३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राजबिलासा १२९ भय भारत पारथ सारथिय रखि लये टिहिभिय सुत । उद्धरिय अहल्या आप हरि गज रख्यो गाहनि गृहत ॥ ५ ॥ अज्ज सफल अवतार अज्ज अमृत धन बुहो। अज्ज भयो मानन्द अज्ज परमेसर तुट्ठो ॥ अज्ज अमर तरु फल्यो अज्ज सुरमनि संपत्तौ । परी मनोरथ माल अज्ज अँग अँग रँग रत्तौ ॥ सुर धेनु अद्य मिलि सुर सुघट राज रिद्धि पत्ते सुरस । प्रगटे निधान मन सुक्ख के देखतही यदुपति दरस ॥ ६०॥ ॥ दोहा॥ इहि परि करि हरि जस अधिक, अनुमि प्रभू के पाइ। अब अनन्त अर्चन सुमति, ललित सहित लय लाइ ६१ सिंहासन हरि सनमुखहिं राजत हिन्दू राय । बैठे बड़ बड़ भूप तहँ, इन्द सभा मनु आइ ॥६२॥ दीपति अति दुति दीपकनि, घृत घनसार समेत । घसि मृगमद केसरि मलय, द्वारनि करतल देत ॥६३ गावत बहु गन्धर्व गन, बहु वादित्र बजन्त । सजि सिंगार बहु सुन्दरी, नव नव नृत्य नचन्त ६४ विप्र वेद धुनि उच्चरत,, हवि मेवा मधु होम । जव तिल वृहि पटकूल थुत,बिलसि ज्वाल बिन धोम६५ कलस रजत के उदक भृत, अष्टोत्तर सत प्रानि ।