पृष्ठ:राजविलास.djvu/१५०

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राजबिलास। रूपहि राज समुद्द रच्यो सुरसे ॥ १५० ।। गजंते जल गभीर गोमती नीर निरन्सर सबल नदी । बंधी गुरु हठ करि उभय अद्रि बिचि वृद्धि पाल अति तुग बदी॥ बहु कोश प्रमित दीरघ बल- वन्ति दुर्गारूप चहुं दिसि दरसे । राजेश राण महे। दधि रूपहि राज समुद्द रच्यो सुरसें ॥ १५१ ॥ ___संख्या को कहे बहू तह सेढी सबल बुरज जानि कसी षरी । तिन उपर महल विपुल अति तुङ्गह कन मोल कोल नीकरी ॥ नव लख लगो धन तिहुन बचो किय ललिवती गुरु पालि लसे। राजेश राण महो दधि रूपहि राज समुद्द रच्यो सुरसें ॥ १५२ ॥ जल भरयो अथग गंग जल जैसे शुचि सुगन्ध शीतल सरसं। षोडस बर कोस सहज गोखीरह सुनिये सब देशहि सुजसं ॥ पीयूष सरिस पय युग मुख पीवत अधिक अमर नर तनु उल्हसें । राजेस राण महोदधि रूपहि राज समुद्द रच्यो सुरसें ॥१५३॥ मंडयो मह यज्ञ मिले बहु महिपति द्विज चारन घन भट्ट दलं । गज बाजी यूथ सथ सेवक गन जान कि उलटे उदधि दलं ॥ सु प्रतिष्ठा कीन सत्त दह संवत बतीसे उत्तम बरसे। राजेस राण महोदधि रूपहि राज समुद्द रच्या सुरसें ॥ १५४ ॥ मासोतम माह रच्यो सु महोत्सव पेखन आये देव पती । सुर वर तेतीस काटि सिद्ध साधक जत्थ