पृष्ठ:राजविलास.djvu/१५२

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राजविलास। धुरसे । राजेश राण महोदधि रूपहिं राज रुमुद्द रच्या सुरसे ॥१५॥ निरखन्त सरोवर जानि पयोनिधि पालि कि पव्वय रूप पहू । सलिता सम मिलन अधिक जल संचय विलसत जलचर जीव बहू । सारस कल हन्स बतक बग सारस चक्रवाक युग सुक्ख बसे । राजेशर राण महोदधि रूपहिं राज समुद्द रच्यो सुरसें ॥१६०॥ प्रगटे जे तित्य प्रयाग रु पुष्कर एकलिंग अर्बुद शिखरं । द्वारामति सेतुबन्ध रामेश्वर रेवत गिर मयुरेश वरं ॥ सुकृत तिन दरस स्नान जिन सलि- लहिं कलिमल संकट दुष्ट नहें। राजेशर राण महो- दधि रूपहि रोज समुद्द रच्यो सुरसें ॥ १६१ ॥ गुरु तर कल्लोल मरुत युत गज्जहि जग जन सेवित जास जलं । केई नर नारि चतुष्पद क्रीड़त दिशि दिशि परित नीर दलं ॥ आयो इह थान कि क्षीर उदधि इहि मेद पाट महि दरस मिसे । राजेसर राण महोदधि रूपहि राज समुद्द रच्यो सुरसें ॥ १६२ ॥ नैन निरषन्त करहिं द्वग निरमल स्नान सकल संताप हरे । पय पान करत.सु पीड़ प्रणासहि कवि मुख कित्तिक कित्ति करें। अवतार सफल जिन दृग अवलोकित राज ससवर चित्त रसे। राजेशर राण