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पृष्ठ:राजविलास.djvu/१५४

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१४७ राजविलास । दधि रूपहि राज समुद्द रच्यो सुरसें ॥ १६७ ॥ ___रबिबंश बिभूषन जय हिन्दू रबि तिलक तुही सब हिन्दु जनं । असुरेस उथप्पन बीर अभङ्गह धन दायक तुम सुजस घनं ॥ राजे राजेन्द रिधू तुम राजस दौलत काइम प्रति दिवसे । राजेशर राण महोदधि रूपहि राज समुद्द रच्यो सुरसे ॥ १६८ ॥ सविता ज्यों ससी सलिलनिधि ज्यों सर रट्रिये ज्यों बासर रजनी। केहरि मृग कनक लोह अन्तर मौक्तिक जल कन मुकर मनी ॥ इह भांति सु राण असुरपति अन्तर यों उत्तम कवि उपदेसे। राजेशर राण महोदधि रूपहि राज समुद्द रच्यो सुरसें ॥१६॥ षल खण्डन देव तुम्हारो षग्गह को समरगन होड़ करे । अवनीपति को तुव मीढ़ सुनावहि तोयधि को निज बाहु तिरें॥ जगराण सु नन्द सदा चिरजीवहु बोलत मान सु ज्ञान बसें । राजेशर राण महोदधि रूपहि राज समुद्द रच्यो सुरसें ॥ १७० ॥ ॥ कवित्त ॥ सु रच्यो राज समुद्द रूप अट्ठम रयणायर । राजसिंह महाराण हरष करि हिन्दू बायर ॥ उत्तम तीरय अवनि सफल भव होत संपिखत । राज नगर रमणीक राज गढ़ सुख छहू ऋतु । धनि धनि सु बंश पित माय धनि अवनि नाउ