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पृष्ठ:राजविलास.djvu/१५५

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राजविलास । ८८ नितु नितु अचल। जगतेश राण पाटे सु जय बदत मान बानी विमल ॥ १७१ ॥ महियल जिते मंडान दखिये जिते दिगन्तह । सूर जिते संचरै पवन जेते पसरत्तह । जिते दीप अरु जलधि जानि ससि तारक जहँ लग। जिते बृष्टि जलधार जिते नर नारि रूप जग ॥ इल जितीक अष्ट कुली अचल बसुमति देखिय सम विषम । कवि मान कहे, दिट्ठो न कहुं सरवर राज समुद्द सम ॥ १७२ ॥ इति श्रीमन्मान कवि विरचिते श्रीराजविलास शास्त्रे श्री राज समुद्र वर्णन नाम अष्टम विलासः ॥८॥ दोहा। श्री राजेशर राण जय, जित्तन औरंगजेब । षल पंडनि षमान ए, टलें न ध्रुव ज्यों टेव ॥१॥ देव कहा दानव कहा, असपति कहा यु आइ । राजसिंह महाराण सों, जीति न कोई जाइ ॥२॥ अचल रज्ज इक लिंगवर, महियल ज्यों गिरि मेर। रिधू राण राजेशवर, जिन किय आलम जेर ॥३॥ किहि विधि बित्यो एक लह, उपज्यो क्यो सु उपाइ। सो संबंध गुथिय सरस, सब प्रति कहो सुनाइ ॥४॥ आदि वैर हिन्दू असुर, धरनि धर्म दुहु काम । कोटिक. इन बित्तं कलष, सबल करत संग्राम ॥५॥