पृष्ठ:राजविलास.djvu/१५६

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राजविलास । १४९ बसुमति हिंदू नृप बड़, इला हिंदु आधार । धरनि शीश हिंदू धनी, भामिनि ज्यों भरतार ॥६॥ जोर भये महि म्लेच्छ जब, तब हरि जानि तुरंत । आप धरे अवतार दस, आनन असुरनि अन्त ॥७॥ इल त्यों हरि अवतार इह, राजसिंह महरांण । ओरंग से असुरेस से. जीते जंग जु ांन ॥८॥ असपति परि ओरंग अति, कूर कपट को काट। जिन मारे बंधन जनक, अल्लह दै बिचि भोट ॥८॥ छन्द पद्धरी। दिल्लीस साहि नोरंग दिद्व, रुकव पिता रद्यहि बइठ्ठ । विश्वास देइ तिन हने बंधु, झै सु दुष्ट उर रद्य अन्धु ॥ १० ॥ निय गोत सकल करिके निकंद, सुलतान भयो छल बल सु छंद । मन्नैन चित पर बुद्धिमंत, दस मुख समान अहमेव वंत ॥ ११ ॥ जिन जीति प्रथम उज्जेनि जंग, सेना असंख कमधज्ज संग । दस सहस बुत्थि पर बुत्थि दिन्न, हय गय अनेक भय छिन्न भिन्न ॥ १२ ॥ संग्राम धौलपुर फुनि सु सज्जि,भय मन्नि साहि सूजा सु भज्जि। पत्तो सु भूमि दरियाव पार, इन साहि भीति तोऊ अपार ॥ १३ ॥ अल्लह सु देइ निज अंतराल, सु मुरादि साहि.