पृष्ठ:राजविलास.djvu/१५७

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१५० राजविलास । उर जानि साल । करकरिय छुरिय लहु बंधु कठि, गुरु भार बंधि जिन पाप गंठि ॥ १४ ॥ जय पत्त तृतिय अजमेर जुद्ध, बंधू सु साहि दारा बिरुद्ध । सोई कहत लीनो संहारि, यों सकल सहोदर जर उखारि ॥ १५ ॥ ___एकल्ल भयो पतिसाह आप, पहु प्रगट कलंकी ज्यों प्रताप । न मुहाइ जास षट दरस नाँउ, धीधिटु दुहु बहु पाप धाउ ॥ १६ ॥ नव लख तुरीय पर वर सनाह, गय सहस पंच मनु वारि वाह । सज होत शीघ्र जिन चढ़त सेन, रवि चंद बिब ढंके सुरेनु ॥ १७ ॥ जिन साहिजाद पन अप्प जोर, घंघल मचाइ गढ़ कज्ज घोर । दोलतावाद लिनो यु दुर्ग, सुलतान तास पहुचाइ स्वर्ग ॥ १८ ॥ ____गुरु गाढ़देव गढ़ देश गुंड, नृप छत्रसाहि जमु देत दंड । हरिवर्ष हून इक लख हेत, लग्गो जु प्रेत मनु भरव लेत ॥ १८ ॥ फुनि लयो दुर्ग पूना प्रधान, थिर धरिय तत्थ अप्पन सु थान । भारत्य दक्खनिय राइ भंजि, रष्यो सु बोल असपत्ति रंजि ॥२०॥ बस किंनह बीजापुर विसाल, भरि दंड भूमि रखै भुवाल । इहि भंति दिशा दक्षिनहि अांन, जिन