पृष्ठ:राजविलास.djvu/१५८

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राजबिलासा १५१ साहि कौन जानत जिहान ॥ २१ ॥ दिशि पुब्ब सिद्धि आसाम देश, पयपंथ जास तिहु मास पेश । मंडलह सोइ दरियाव मष्य, जगती सुलई जिन करिग अष्ष ॥ २२ ॥ कुरु कासमीर कासी कलिंग, वैराट धाट बब्ब- रह बंग । बंगाल गोड़ गुज्जर विदेह, सोरह सिंधु सोबीर लेह ॥ २३ ॥ मुलतान खांन मरहट्ठ सार, पंजाब पंच पथ सिंधु पार । मेवात मालपद आदि देश, जिन साहि प्रान विब्वर विशेश ॥ २४ ॥ दरबार जास घन दोइ दीन, अनमिष्ष नेन ठढे अधीन । सेवंत जोर युग कर सु ठीक, महाराज राज बर मंडलीक ॥ २५ ॥ उमराव पान इहि बिधि अनेक, प्रनमंत जास पय छंडि टेक । द्वादश हजारि जनु हुकमि दूत, परवार छंडि परदेश पूत ॥ २६ ॥ इक भरत दंड इक मिलत आइ, पारी यहि इक पतिसाह पाइ । इक परत बंदि जसु नृप उधुत्त, परिकर समेत तिय भ्रात पुत्त ॥ २७ ॥ चौरासि अवल्लिय ,रूप. चारु, चौबीस पीरि क्रामाति धार । थप्पै स अप्प तुरकान यान, काजी कतेव कलमा कुरान ॥२८॥