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पृष्ठ:राजविलास.djvu/१६०

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राजविलास। ॥ दोहा॥ कपट सुलषि कमधज्ज कहि, साहि कहो सो संचा परि तुम वा यक पलट ते, पिन न करो षल पंच॥३०॥ तिन कारन तुम दुसह तप,जिय हम सहो न जाइ । दीजै हुकुम सु दूरि ते धर त्यों लीजै धाइ ॥३८॥ ॥ कवित्त ॥ सेंमुख न मिलों साहि निकट तुम सीस न नाऊं। बन्दौ तुम बिश्वास और चढती रन आऊं ॥ देस सन्धि दिगपाल रहो रिपु थानहि रक्खन । मैं इह मीनति होइ और कछु बहुत न अक्खन ॥ सुविहान पान शिर धारिहौं तपै सोइ दिल्ली तषत । कम- धज्ज राइ जसवंत कहि राख पतिसाही रषत ॥३॥ ॥दोहा॥ नावै ढिग कमधज्ज नृप, सुनियो औरंग साहि । निफल पुब्बमति जानि निज, मते मंत मन मांहि॥ छन्द पद्धरी। फुनि रच्यो एक पतिसाह फन्द । निय केद करन कमधज नरिन्द ॥ फिरि लिख्यो दुतिय फुर- मान मान । बहु नरम भास राजस विनाम ॥ १ ॥ अवनी सुव धारे अधिक भान । परगना एक- तीसह प्रधान ॥ सजि, उभय तुरङ्गम कनक साज । शिरपाव ऊच जरकस ससाज ॥ ४२ ॥ मुख वैन ओर यो प्रक्खि मिट्ठ । पालम पगार