सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:राजविलास.djvu/१६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राजविलास। वर हंस तास तनु ते व्यतीत ॥ ५० ॥ ... ए ए सुबुद्धि कमधज्ज अंग । सब कहत सूर सामन्त संग ॥ घण घल्लि साहि विश्वासघात । महा- राय करी सातूल मात ॥ ५१ ॥ .. पतिसाह जोर किंनो प्रपंच । राठोरराय चूक्यो न रंच ॥ जग मज्झ जास तप भाग जोर । किं करे तासु रिपु छल कठोर ॥ ५२ ॥ __ अवलोकि असुर पति कृत अनीति । भग्गो विसास नृप मन अभीति ॥ अमरष गुमान बाढ्यो अछेह । राखे अमेल जनु अद्रि रेह ॥ ५३ ॥ . . . . इक कहे पुब्ब पच्छिम सु एक । पग पगहिं पन्थ भाषा प्रत्येक ॥ धर धरें इक्क वर क्षत्रि धर्म । कलि करें इक्क धन म्लेच्छ कर्म ॥ ५४ ॥ वाराह इक्क इक सुरहि बैर। इक हनत हक्कि इक करत गैर ॥ इहि भंति उभय नप भी अमेल । सल्ले सु साहि उर जानि सेल ॥ ५५ ॥ . - नन छल्यो जाइ कमधज्ज नाह । अभिनव मु बुद्धि अंबुधि अथाह । चढ़ि समुष युद्ध जो करो चूक। इनसो न तऊ जित्तों अचूक ॥ ५६ ॥ ...: सब एक होइ रहिं हिन्दु साज। राजेश राण सगपन सकाज ॥ हाडा नरिन्द गढ़ पति हठाल । भल भाव सिंघ बुन्दी भुवोल ॥ ५७ ॥