पृष्ठ:राजविलास.djvu/१६३

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राजविलास। तो लेहि दिल्ली चढ़ तुरङ्ग । जुरि जोर घोर हम सत्यं जंग ॥ बर बीर धीर बल बिकट बंक । सुलतान चित्त यो पत्त संक ॥ ५८ ॥ ॥ कवित्त ॥ संकै चित्त सुलतान घोस निसि मन न मिटै डर । जोधपुरा जसवन्तसिंघ महाराइ जोर वर ॥ न मिलै चित्त निराट सैल पाषान रेह सम । असुरा- इन उत्थरै धेरै धर एक क्षत्रि ध्रम ॥ सिरपाव साहि औरंग को पहिरे नहिं कबहूं सु यहु । अति टेक लिये अमुरेस से बैर भाव राखे सु बहु ॥ ५८ ॥ ॥दोहा॥ जहां बैर तहां बैर बहु, मेल तहां बहु मेल । मन वित भग्गो ना मिलै तेसे तोय रु तेल ॥ ६०॥ कवित्त ॥ बढ़य बैर ने बैर मिलन तें मिलन बढ़य मन । चित्त वित्त तें बढ़य रिनह तें बढ़य अधिक रिन । बुद्धि बुद्धि तें बढ़य रज्ज ने बढ़य रज्ज सिधि । लोभ लोभ तें बढ़य सिद्धि ते बढय सकल सिधि ॥ बढ़यं सु बीज बर बीज ते मान मान तें बढय महि । अबगाढ़ साहि औरंग ने गाढ़ अधिक राठोर गहि ॥ ६१ ॥ ___ मन भग्गो नन मिलय मिलयनन भग्गो मुत्तिय । भार भग्ग नन संधे. पल्लरै हाम प्रपत्तिय । कोटिक