पृष्ठ:राजविलास.djvu/१६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

१६२ राजविष्ठास। हत्य अंकुश प्रबल बनि बहु बरन पताक बर ॥७॥ उभय लक्ख बर अश्व सजड पर वर सपलानह । पंषी वेग पवंग पवन पय पंथ प्रधानह ॥ एराकी आरवी पंग कबिला खुरसानी। साणोरा सिंहली कत्थि कांबोज किहाणी। काश्मीर किहाडा कोकनी चलत जानि मारुत चपल । पुरतार मार धरहरिय षिति प्रचलि शैल पुलि ईश पल ॥ ८८ ॥ पयदल सेन प्रचंड करषि कोदंड उदंडह । सनध बद्ध सायुद्ध चित्त अहमेव सुचंडह ॥ तोन सकति कटि तेग कुत अरु ढाल सुकत्तिय। गुरज हत्य किन गरुन रोस भरि दिहि सुरत्तिय ॥ मुररंत मुछ मय मत्त मनु केइ तोय कंधे वहय । धमकंति धानि जिन पय धमक रुप्पि पायरिन मुखर हय ॥ ८ ॥ सुभर रत्य बहु शस्त्र कवच बगतर कल हंकित। पच्चर भरित खजान सहस इक डोरि सु शोभित ॥ बहु बिधि रषत वषत्त करभ भरि भार अनन्तह । चढ्यो बाजि चकतेस घोष नोवती घुरन्तह । मचि सोर जोर रव लोक मुष हय हीसतु गज्जत गय । सुनिये न सद्द घन भरि श्रवन भूमि सकल हयकंप भय ॥ ८॥ सत्तरि षांन सुसत्य बलिय उमराव बहत्तरि । तरु बन घन तुत पुहवि उन मग्ग मग्ग परि॥