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पृष्ठ:राजविलास.djvu/१७०

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राजविलास। रवि नभ ढंकिय रेनु चलत गिरि भय चकचरह । सर सलिता दह सुक्कि पसरि दिसि दिसि दल पूरह । फनधर सभार संकुरिय फन कठिन कुम्भ षुप्परि कटकि । परि पंच कोस सुपराव यहु झंड रुप्पि बहु बिधि झटकि ॥ १॥ कूच २ करि परिग त्रय २ सकोस षिति । पाए गढ़ अजमेर प्रगटि आवाज जगत प्रति । मारवारि मेवार षंड रार खरभरि ॥ बागरि छप्पन बहकि डहकि गढवार चित्त डरि। कांबोज कुक्क परि कलकलिय प्रचलिय कच्छ विभच्छ पह । चल- चलिय चहों दिशि चक्क चढ़ि मोरंग साहि प्रतात यह ॥२॥ ॥दोहा॥ गज्जि झंड अजमेर गढ़ अप्प साहि ओरंग ॥ सवा लाख हय सेन सों रहयो सुरढ़ घन रंग ॥ ३॥ सत्य तुरँग सत्तरि सहस सहिजादा सजि सैन ॥ पठयो मुरधर देश पर लछि कमधज्जी लेन॥४॥ सो सिताव आवत सुन्यौ सज्यौ रडवर सत्य ॥ हय गय पयदल घनह सम सहस बतीस समत्य ॥५॥ जोधपुरह तें यवन दल , पंच कोस सु प्रमान ॥ . प्राइ परयो जानकि उदधि आडंबर असमान ॥६॥ अनुग मुक्ति तिन अक्खि इह सुनहु रहवर सर ॥